Saturday, November 22, 2008

इजाज़त

हम जिस ज़मीं पर ठोकर लगा आये थे,
सुना है उन पत्थरों पर, अब फूल खिलते हैं |
दोस्ती तो है इक आदत बुरी मेरी, मगर
ये अजनबी क्यों इस अपनेपन से गले मिलते हैं ?

चंद पलों में, कई सदियां गुज़रने के बाद,
दिल ने कुछ कहना चाहा ही था;
आंखें भरी भी नहीं, ज़ुबां हिली भी नहीं,
बस कानों ने सुना - "चलते हैं"

चेहरे पर चिपकी मुस्कराहट, देखी तो मगर
सोचा न कभी, क्या किसी कोने में आंसू भी पलते हैं ?
जुदा होने कि इजाज़त, वो मांगते हैं हमसे,
हम खुदा तो नहीं, हम भी कुछ बातों से डरते हैं |

बीती हुई कुछ यादों की गर्मी बची है बस,
जिनके सहारे हमारी ज़िन्दगी के पल पिघलते हैं ;
सपनों को पुकारे जो, इक ऐसी रात का इंतज़ार है मुझे ,
ये बात और है कि कुदरत में,रोज़ सूरज ढलते हैं ||

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